Friday 6 March 2015

टी.वी./मीडिया पे किसी एक्टर/सोशल एक्टिविस्ट द्वारा किसी भी संस्कृति की आलोचना करने का मतलब!

"It is all about 'Negative Marketing' for earning business and perhaps identity too."

1) अगर एक्टर/एक्ट्रेस ऐसा कर रही है तो उसको अपनी फिल्म/टी.वी. सीरियल के लिए मार्किट चाहिए|
2) अगर सोशल एक्टिविस्ट या एन.जी.ओ. वाला ऐसा कर रहा है तो उसको उसकी एन.जी.ओ. और घर चलाने के लिए सरकार से फण्ड हासिली की सुनिश्चितता चाहिए|

एक्टर/एक्ट्रेस तो बेचारे अपनी कमाई को ले के इतने डरे होते हैं हैं कि किसी भी टी.वी. सीरियल या फिल्म के आगे उसके "काल्पनिक होने व् उसमें दिखाए किरदारों का वास्तविक समाज से कोई-लेना देना नहीं होने" की तख्ती लगा के रखते हैं| तो बताइये जो अपने प्रोडक्ट की गारंटी अथवा जिम्मेवारी नहीं ले सकते, वो किसी संस्कृति का क्या भला कर सकते हैं?

और एन.जी.ओ. वाले मामले में तो ऐसा होता है कि 95% लोगों द्वारा उनकी संस्कृति को छोड़ बाकी किसी की भी संस्कृति की रक्षा की ठेकेदारी उठाई होती है, फिर चाहे उस संस्कृति का अ. ब. स. द. भी ना पता हो| कोई खत्री पंजाबी हरयाणवी भाषियों को सुधारने की एन.जी.ओ. खोले होता है; तो कोई धर्म के जरिये जहर फैलाने वाला समाज में एकता और समरसता की| कोई बिहारी-बंगाली खापलैंड सुधारने का ठेका उठाये फिरता है तो कोई आसामिया टी.वी. एंकर जाटों पे ललित निबंध सुना रहा होता है| वही पी.के. फिल्म वाली बात, सब के सब wrong connection.

वास्तव में होता क्या है कि बिज़नेस में एक परिभाषा होती है, जिसको कहते हैं "नेगेटिव मार्केटिंग" (Negative Marketing), जिसका मतलब होता है कि सामने वाले की चीज को छोटा, तुच्छ, यहां तक कि घिनौना बता के अपना माल बेचना, अपना आईडिया बेचना| उस सांस्कृतिक ग्रुप में अपना माल बिक गया यानी फिल्म/टी.वी. सीरियल चल गया, या एन.जी.ओ. का एजेंडा चल गया तो हो गया, उसके बाद भाड़ में जाए जनता|

और 'भाड़ में जाए जनता' बात को साबित करना है तो आप देख लीजिये कि कितनों ने इनकी गतिविधियों अथवा प्रोडक्टों से आजतक हरियाणवी संस्कृति या किसी भी अन्य संस्कृति को कितना सहेजा है? तो संस्कृतियों को बिगाड़ने में अपनी संस्कृति को छोड़ दूसरों की का ठेका उठाने वालों का सबसे बड़ा हाथ है, वर्ना अगर हर कोई अपनी-अपनी संस्कृति के ठेका उठाये रखे तो इतनी बड़ी दिक्क्त ही ना हो, और ना ही 'नेगेटिव मार्केटिंग' की जरूरत पड़े| यहां कभी यह भी जांच के देखिएगा आप लोग की संस्कृति के मामले में 'पॉजिटिव मार्केटिंग' कौन लोग और कैसे करते हैं; ताकि दोनों का अच्छे से फर्क समझ आ जाए|

खैर इस लेख को लिखने का जो मकसद है उस बिंदु पर आता हूँ| होता यह है कि इनकी तो नेगेटिव मार्केटिंग हो जाती है और पैसा कमा के फुर्र हो जाते हैं; परन्तु पीछे छोड़ जाते हैं लोगों में अपनी ही संस्कृति के प्रति असमन्झस, अविश्वास व् दोषयुक्त होने की हीनभावना| और जहां हीनभावना शुरू वहाँ इंसान का अपनी संस्कृति-वस्तु के पक्ष में बोलना खत्म, उसके पक्ष में बोलना खत्म तो उसकी रक्षा खत्म और रक्षा खत्म तो उसको सहेज के रखना खत्म और सहजना ख़त्म तो संस्कृति खत्म| यानी संस्कृति इसलिए खत्म नहीं होती कि कोई आपको उसे सहेजने से रोक रहा है अपितु वो आपके अंदर उसके प्रति अविश्वास पैदा करके जा रहा है; फिर उसको खत्म करने का काम तो उसके लिए बोलना छोड़ देने से आप खुद ही करते हैं|

इसलिए इस मीडिया/टी.वी./बॉलीवुड व् एन.जी.ओ. वालों की इस "नेगेटिव मार्केटिंग" के फंडे को समझें| इनके प्रोडक्ट्स आपको समझ आएं तो देखें अन्यथा इनकी नेगेटिव मार्केटिंग के प्रभाव में आ के तो बिलकुल ना देखें और देखें तो तुरंत उसमें जो गलत था उसकी आलोचना करें| अपने ब्लॉग पे, अपनी सोशल मीडिया पेजों पे इनकी आपकी संस्कृति के खिलाफ दिखाई गई हर नेगेटिव चीज पर खुल के लिखें और खुल के उसको लोगों को बताएं; खासकर अपनी संस्कृति वालों को तो बताएं ही बताएं| परन्तु उनके द्वारा आपके खिलाफ परोसा गया नेगेटिव बताते-बताते, खुद के नेगेटिव को छुपाने की आदत बस इतनी ही डालना कि वो बाहरी समाज से छुपे, आप से नहीं; क्योंकि आपको तो उसको उखाड़ना है| निचोड़ यही है कि अपनी सभ्यता-संस्कृति को इस नेगेटिव मार्केटिंग की भेंट ना चढ़ने देवें| - फूल मलिक

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