Thursday 16 April 2015

भैंस का दूध मल्टीटास्किंग होता है जबकि गाय का दूध सिंगल-टास्किंग!


गाय का बछड़ा एक वक्त में एक ही काम कर सकता है, या तो उसको सांड बना के प्रजनन के लिए रख लो या फिर उसको "उन्ना" बना के यानी उसकी प्रजनन नली बंद करके हल में जोड़ लो|

जबकि भैंस का कटड़ा, दोनों काम एक साथ कर लेता है, यानि बोझा ढुवा लो या बुग्गी-ट्राली में जोड़ लो या सेम टाइम प्रजनन करवा लो| इससे भी बड़ी बात, सर्विदित है कि जहां कोर लोड का काम होता है वहाँ भैंसे, बैलों से ज्यादा कामयाब होते हैं| तमाम हरियाणा से पश्चिमी यू. पी. में गन्ने से भरी बुगियों को कीचड भरे खेतों से निकालने के लिए हट्टे-कट्टे झोटे ही ले जाए जाते हैं, बैल नहीं|

बैल सिर्फ हल्का-फुल्का बिना ज्यादा दबाव का ही काम कर सकता है वो भी "उन्ना" बनाने के बाद, जबकि भैंसा मस्त-मौला कहीं से भी भरी गन्ने की बुग्गी को उखाड़ ले जाता है|

विशेष: यह लेख उन लोगों के लिए एक ओपन डिबेट है जो सारे किसान समाज को गाय या भैंस में से कौनसा जानवर बढ़िया है की हठधर्मिता वाली शिक्षा देते फिरते हैं| और मेरा कहना है कि अगर तुलना करने लगोगे तो भैंस ज्यादा उपयोगी है गाय की अपेक्षा, लेकिन फिर भी कहूँगा कि दोनों में कुछ ऐसे गुण भी हैं जो एक के दूसरी से ज्यादा बेहतर हैं, इसलिए यह फैसला गाय या भैंस पालने वाले पे छुड़वा के इन तथाकथित फंडियों के ऐसे उपदेशों को दरकिनार किया जावे|

इससे भी जरूरी जानवर पालना किसान का कारोबार है धर्म नहीं, धर्म वालों को अगर किसी जानवर में उनकी माँ या बाप दीखता है तो ले जा के अपने धर्म-स्थलों में बाँध लेवें|

कोई आपसे अगर यह पूछे या कहे कि भैंस की जगह गाय क्यों नहीं पालते तो कहना:

नाथ परम्परा पे हमारे गाँवों के तरफ यह कहावत है कि, "मसोहका गोक्के पै नहीं जायेगा, परन्तु गोक्का मसोहके पे भी चला जाता है", यानी खागड़ इतना कामांध होता है कि वो भैंस-गाय में फर्क नहीं कर पाता परन्तु झोटा यानी भैंसा इतना सूझबूझ वाला होता है कि वह यह फर्क कर लेता है| इससे आप अंदाजा लगा लीजिये कि हमारे इधर नाथ परम्परा वालों को कामांध मानते हैं| और यह बाकायदा जांचा-परखा तथ्य है, किसी को पुष्टि करनी हो तो पांच-दस दिन - महीना भैंसों-गायों-खागड़-झोट्टों के झुण्ड का गवाला बन के खुद परख लो|

और खागड़ की इसी कामान्धता पे हमारे यहां एक कहावत और है कि "फलानि धकड़ी बात, तू के सांड छूट रह्या सै, आया बड़ा गोरखनाथ का चेल्ला, जाँदा नी!" बाकी मुर्राह भैंस देशी गाय से ज्यादा दूध देती है यह तो विश्वविख्यात है ही|

परन्तु फिर भी समझ नहीं आता कि लोग गायों के पीछे इतने पागल हुए क्यों फिर रहे हैं, क्या समाज के अंदर कामांधों (lustfull jerks) की संख्या बढ़ानी है?

अब पत्थर-जानवर पूजने-पुजवाने का नहीं, लोहे की आराधना का जमाना है:

खेती में काम आने की वजह से ही अगर कोई मेरा माँ-बाबू (तुम्हारी परिभाषा में, हमारी में तो जो जानवर थे वो जानवर हैं, और जो मशीनें हैं सो वो तो मशीनें हैं ही) बन जाता है, या कहा जाता है तो मैं आज से ट्रेक्टर-ट्राली को मेरा माँ-बाबू घोषित करता हूँ| क्योंकि जबसे किसान के घर में जन्म लिया है तब से ले के आजतक ट्रेक्टर-ट्राली ने ही मेरा पेट पाला है| सो आपकी परिभाषा के अनुसार (मेरी नहीं) आज से कोई सफेद जानवर नहीं अपितु यह मशीनें मेरे माँ-बाबू|

फंडियो जी किसानों ने तो टेक्नोलॉजी के सहारे इतनी तरक्की कर ली और आप हो कि अभी तक सातवीं-सत्रहवीं शताब्दी में जी रहे हो| ये देखो यहां गाय-बैल की जगह अब ट्रेक्टर-ट्राली हमारे माँ-बाबू बन चुके| तुम भी अपडेट करो अपने फंड रचने की कला को; ताकि फिर उसका आगे और कोई तोड़ निकालें हम|

अब पत्थर-जानवर पूजने का नहीं, लोहा पूजने का, ओह नहीं पूजना नहीं, उसकी आराधना करने का जमाना है|

गाय हमारी माता है, बैल हमारा बाप है के दिन.... गए रे भैया, गए रे भैया!
 ट्रेक्टर हमारा पापा और ट्राली हमारी मम्मा, के दिन .... आये रे दैया, हाय रे दैया ....

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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