Saturday 13 June 2015

अधिपत्य सिद्धता की राजनीति बनाम राज-कर्तव्यता की राजनीति!


(जाट का धर्म के लिए नहीं अपितु देश-कौम व् मानवता के लिए हथियार उठाने का इतिहास रहा है)

विगत दो सालों के इतिहास को छोड़ दो तो जाट-कौम के इतिहास में ऐसी अंधभक्ति की कोई काली तारीख नहीं, जब उसने धर्मांद व्यभिचारियों व् पाखंडियों के मंसूबे सधवाने हेतु हथियार उठाये हों| इससे पहले जाट ने जब भी हथियार उठाये वो सिर्फ और सिर्फ देश-कौम और मानवता की रक्षा के लिए उठाये थे| और इस परम्परा का इतिहास वहाँ तक जाता है जब ईसा-पूर्व दूसरी सदी के पुष्यमित्र सुंग से ले शशांक और दाहिर जैसे राजाओं ने जाटों के साथ सामाजिक संधि तोड़ी थी|

मैं हिन्दू धर्माधीसों को अक्सर कहा करता हूँ कि या तो बुद्ध को हिन्दू धर्म का नौवां अवतार कहना छोड़ दो, अन्यथा मुझे बुद्ध की उपासना करने दो| इसको मैं हिन्दू धर्म का दोगलापन कहूँ, मौकापरस्ती कहूँ, स्वार्थ कहूँ या क्या कहूँ, कि एक तरफ तो पुष्यमित्र सुंग, शशांक और दाहिर से बुद्ध अनुयायिओं के मठ-लाइब्रेरी (नालंदा और तक्षिला की लाइब्रेरियां बुद्ध धर्म के साहित्य संग्रहालय थी) तुड़वाये, इस धर्म को भारत से खत्म करने हेतु जितने हो सकते थे उतने जुल्म करवाये और दूसरी तरफ उसी बुद्ध को हिन्दू धर्म का नौवां अवतार भी बना लेते हैं| आखिर एक धर्म का यह कैसा अवतार हुआ कि उसी धर्म की किताबों-ग्रंथों-मठों-शंकराचार्यों की जुबानों तक के अनुसार वो उस धर्म का नौवां अवतार कहा जाता है और उसी धर्म के लोग उसकी उपासना करें तो उनको मौत के घाट उतरवा दिया जाता रहा है?

मुझे शायद ही किसी जाट राजा का ऐसा इतिहास पढ़ने को मिलता है जिसने राजा बनते ही एक जाति-विशेष के खिलाफ उसको मिटाने-झुकाने-तोड़ने अथवा बर्बाद करने के बिगुल बजाये हों| परन्तु इन तीनों राजाओं का यही इतिहास रहा| जो इनके बारे जानता है वो इनका इतिहास भी जानता है, जाति भी और इनके कुकर्म भी| कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि इन राजाओं ने जो काल जाटों को दिए, ऐसा ही बड़ा (छोटे-मोटे तो और भी रहे हैं) चौथा काल अब चल रहा है| और यह तब-तब हुआ है जब-जब जाट हद से ज्यादा इनके अंदर घुसे हैं, इनसे गलबहियां डालने की भूलें की हैं या इनके अंधे या धक्के के प्रभाव में आये हैं|

पुष्यमित्र सुंग और शशांक की हरकतों का जहर चढ़ता-चढ़ता जाटों में तब सहिषुणता का बाँध तोड़ गया जब दाहिर ने भी राजा बनते ही जाटों के खिलाफ प्रताड़ना शुरू कर दी, इससे जाटों ने उदासीनता ओढ़ ली और इनकी राज-कुशलताओं और दक्षताओं को देखने की नियति पे ही चलना धारण किया| क्योंकि यह जाट की गुणवत्ता का सबसे बड़ा उत्कृष्ट गुण रहा है कि अपनों द्वारा ही जब-जब देश की शांति भंग करने की परिणति उठी, उसने उस परिणति को तोड़ने और देश की शांति को बरकरार रखने के बीच देश की शांति को चुना है|

यह लोग ऐसे व्यवहार करते रहे हैं जैसे कोई बच्चा उससे किसी ऐसी चीज जो चलानी-संभालनी उसके बस की ना होते हुए भी उसको सिर्फ अपने अधिपत्य में रखने हेतु रुदन मचाने लग जाता है| और इतिहास में खाई बार-बार चोटों ने इनको ऐसा ही साबित किया| निश्चय ही ऐसी थ्योरी के तहत बने या बनाये राजा वही होंगे जो राज को सिर्फ अपना अधिपत्य सिद्ध करने को चलाते हों| और यही हुआ इन ऐतिहासिक मौकों पर:

1) अरब के व्यापारियों के साथ दाहिर के राजदरबारी व् व्यापारियों ने बदसलूकी कि तो अरब के खलीफा ने मीर कासिम को सिंध भेजा| और क्योंकि यह सिर्फ अधिपत्य सिद्ध करने को सत्तारूढ़ होते आये तो जो युद्ध-राज कला में सबसे निपुण जाट जाति इन्होनें जाट से अपने दुर्व्यवहार के कारण अलग कर दी थी, इस संकट की घड़ी में उसका समूचा साथ ना मिलने की वजह से दाहिर मीर कासिम से हार गया| अब जाहिर सी बात है जो किसी के साथ राज्य का बासिन्दा होते हुए भी दुश्मन सा व्यवहार करेगा तो भीड़-पड़ी में उसका साथ कैसे पा लेगा? और इस तरह मुग़लों का आगमन भारत में शुरू हुआ| लेकिन इतिहास के पन्ने साक्षी हैं कि बाद में अरबों को नकेल डाली जाटों ने ही|

2) यह कोरी अधिपत्य साबित करने की थ्योरी के दुष्परिणाम के सिवाय कुछ भी नहीं था कि महमूद ग़ज़नवी को खुद भारतीय धर्म की अधिपति जाति के ही कुछ लोग उसके सेनापति बन उसको भारत पे हमला करने को बुलाते हैं और वो सोमनाथ के मंदिर की तरफ मुड़ जाता है| और जनता को सिर्फ मौखिक गपेड़ों से काबू करने के आदि बन चुके लोगों के उस दावे को धत्ता बताते हुए कि इस मंदिर में सेना घुसी तो अंधी हो जाएगी, उसी सेना ने सोमनाथ को जी भरकर लूटा| लेकिन देश-कौम पर बात आती देख, सिंध के जाटों ने दादा जी महाराज बाला जी जाट के नेतृत्व में खाप-आर्मी ले गजनवी लुटेरे के अधिकतर कारवां को लूट लिया| यह ठीक वैसी ही साइकोलॉजी है कि बस अब बहुत हुआ, तुम्हारी राजकुशलता बहुत देखी, अब बात देश-कौम की गरिमा पे आन खड़ी हुई है तो हमें आगे बढ़ना ही होगा|

3) यह कोरी अधिपत्य साबित करने की थ्योरी के दुष्परिणाम के सिवाय कुछ भी नहीं था कि पृथ्वीराज चौहान द्वारा मोहम्मद गौरी को हरा, बंधी बना लिए जाने के बाद भी राजदरबार के सलाहकारियों ने उसको मुक्त करवा दिया और उसका प्रतीकात्मक परिणाम यह हुआ कि गौरी फिर से चढ़ आया और पृथ्वीराज को बंधी बना ले गया| पूरे विश्व में यह अनोखी थ्योरी हमारे भारत में ही देखने को मिलती है कि एक खतरनाक युद्धबंदी को छुड़वाया गया हो, वरना रोमनों से ले हूण, मंगोलों से ले पर्सियन किसी के इतिहास में ऐसे लाजवाब समझ से परे के किस्से नहीं मिलते| फिर भी यह राजकुशलता देख रहे जाटों ने ही अंत में पृथ्वीराज के कातिल को मारा, क्योंकि बात देश-कौम की अस्मिता पे जो आन डटी थी|

इस बीच बहुत से अन्य युद्ध-यौद्धेय होते गए और देश के काम आते रहे| ऐसे चलते चलते काल आया औरंगजेब का|

4) यह कोरी अधिपत्य साबित करने की थ्योरी के दुष्परिणाम के सिवाय कुछ भी नहीं था कि औरंगजेब ने जब तक अन्य जातियों के साथ-साथ धर्म ध्वजा वाली जाति पर भी जजिया कर नहीं लगाया तो इन्होनें औरंगजेब को कुछ नहीं कहा| परन्तु जैसे ही यह कर लगा, इन्होनें रूदन मचाने शुरू कर दिए| और उधर इनकी राज-कुशलताओं पर नजर रखे हुए जाट-समाज को भी अहसास हो गया कि अब सहनशीलता की सीमा आ चुकी है| तो तब जब सम्पसम्पूर्ण ब्रजमंडल में मुगलिया घुड़सवार और गिद्ध चील उड़ते दिखाई देते थे, धुंए के बादल और लपलपाती ज्वालायें दिखाई देती थी, राजे-रजवाड़े झुक चुके थे; फरसों के दम भी दुबक चुके थे, ब्रह्माण्ड के ब्रह्म-ज्ञानियों के ज्ञान सूख चुके थे, हर तरफ त्राहि-त्राहि थी, ना धर्म था ना धर्म के रक्षक| तब निकला उमस के तपते शोलों से एक शूरवीर, तब किरदार में अवतारा था वो यौद्धेयों का यौद्धेय "समरवीर प्रथम हिन्दू धर्म-रक्षक अमर-ज्योति 'गॉड गोकुला' जी महाराज"|

और इसके बाद जाटों ने अपनी राजसत्ता और दक्षता को फिर से उसी स्तर का अमली-जामा पहनाने की ठानी जो कि महाराजा हर्षवर्धन, कनिष्क और पोरस काल में हुआ करता था| और चले तो ऐसे चले कि मुग़ल हों या अंग्रेज सबकी तलवारों की धार ऐसी परखी कि कूटनीति-राजनीती और युद्धकौशलता के लिए एकछत्र डंका बजाने वाले महाराजा सूरजमल, महाराजा रणजीत सिंह पंजाब, महाराजा जवाहर सिंह, महाराजा रणजीत सिंह भरतपुर दिए| जहां अधिपत्य हेतु राजनीति करने वाले आज भी हारे हुए राजाओं-रजवाड़ों को ही फिल्मों-नाटकों में सर्वोत्तम दिखाते हैं वहीँ जाटों ने वो राजे निकाले जिनका लोहा मुग़लों ने भी स्वीकारा, अंग्रेजों ने भी और दबी जुबान में इन खुद अधिपत्य-मात्र की राजनीति करने वालों ने भी| और कुछ एक की बेचैनी का तो यह आलम है कि आज इन जाट राजाओं को ही अपने ही वंश का बता के जाट की शौर्यता को भी अपनी बताते हुए आम सुना जा सकता है|

5) पानीपत की तीसरी लड़ाई में जब पेशवा महाराजा सूरजमल की सलाह को नकारते हुए उनको दरकिनार कर पानीपत लड़ने चढ़े तो मुंह की खा के लौटे| फिर उन्हीं अहमदशाह अब्दाली के सेनापति नजीबुद्दीन पर रणचंडी बन महाराज जवाहर सिंह नाचे तो अब्दाली भी मूक-दर्शक बन गया और दिल्ली में लगे चित्तोड़ के अष्टधातु दरवाजे समेत, मुस्लिम राजकुमारी से ब्याह और युद्ध खर्च की संधि पर ही वापिस लौटे|

6) 1857 की क्रांति में अपने-अपने इक्का-दुक्का हीरो को सबसे अग्रणी साबित करने में लगे रहने वाले बड़े सहज ही यह भूल जाते हैं कि वह आप नहीं अपितु जाट और खाप थे जिनकी वजह से अंग्रेजों को कलकत्ता से दिल्ली में राजधानी शिफ्ट करनी पड़ी, 1857 के भोगने स्वरूप जाटलैंड की यमुना के आर और पार दो फाड़ करनी पड़ी| क्या इससे बड़ी कोई परिणति है उस इतिहास की जो यह साबित करती हो कि 1857 का झंडा किसके हाथ रहा?
क्या यह ईसा-पूर्व दूसरी सदी में जाटों से सामाजिक संधि तोड़ने वालों ने यह संधि फिर से स्थापित की है, क्या जाटों को इसको तोड़ने बारे इसको तोड़ने वालों ने कोई माफ़ी या पछतावा पत्र लिखा है? जब यह लिखा ही नहीं तो ऐसे गलबहियां किस काम और उद्देश्य-सिद्धता की? इतिहास गवाह है कि यह संधि टूटने पर भी जाट जहां खुद को बचाने में सफल रहा वहीँ इनसे जो इतिहास की तारीखें बिगड़ी उनको भी संगवाता यानी सुधारता आया| लेकिन हर विद्या-दक्षता का धनी जाट जब तक अपनी धर्म और धन की इन अधिपत्य की राजनीती करने वालों से रक्षा हेतु कड़ी नीति नहीं अपनाएगा, तब तक दुविधा और उहापोह खत्म नहीं होगा| मानवीयता के मापदंडों पर बेहद लचीले जाट को अपनी खुद की धार्मिक मान्यताओं जैसे कि "दादा नगर खेड़ा" और अपने धन यानी फसलीय उत्पाद का मूल्यनिर्धारण का हक़ अपने हाथों में लेना ही होगा| और इनसे भी पूछना होगा कि पहले पुष्यमित्र सुंग की तोड़ी संधि को जोड़ो, और फिर किसी एकता और बराबरी की बात करो| वरना तो जाट इस टूटी हुई संधि की वेदना पर ही चलते हुए, समाज के हर फर्ज को पूरी तल्लीनता से निभाते आये हैं और निभाते रहेंगे; उसके लिए जाट को किसी धार्मिक कटटरता से जुड़ने या बहकने की जरूरत नहीं|

चलते-चलते एक गौर फरमाने की बात कहूँ, इतिहास में पहली बार इन लोगों ने जाट-राजनीति पर चलते हुए किसी गैर-धार्मिक प्रतिनिधत्व समुदाय के मनुष्य को पीएम बनाना पड़ा है| परन्तु जाट से संधि को आज भी तैयार नहीं| लगता है ताऊ देवीलाल की अधिपत्य-सिद्धि से रहित उस राज-कर्तव्यता की राजनीती से ही प्रेरणा लेकर इन्होनें यह कदम उठाया है जिसके तहत ताऊ जी ने खुद पीएम नहीं बन, दो-दो राजपूतों (श्री वीपी सिंह व् श्री चंद्रशेखर) को पीएम बनाया था|

लेकिन यह इतना भर तो ऊँट के मुंह में जीरे के समान है| असली राज-कर्तव्यता और देशपालना तो उस दिन बन-निकलेगी जब ईसा पूर्व दूसरी सदी की टूटी इस संधि को जोड़ने हेतु कदम उठाए जायेंगे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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