Sunday 7 June 2015

आखिर आप अन्नदाता का कार्य करते हो, वह तुच्छ कैसे बताया जा सकता है?


जब एक ब्राह्मण कारोबार बदलता है तो वो कभी भी पंडिताई अथवा पुरोहिती को बुरा बताते हुए नहीं छोड़ता; वरन उसके प्रति सम्मान रखते हुए, उस कार्य की प्रतिष्ठा को बरकरार रखता है|

वैसे तो बनिया यानी व्यापारी वर्ग अपना कारोबार बदलता नहीं, परन्तु जब भी बदलता है तो उसकी भी यही कहानी रहती है कि वो उसके पुराने कार्य को सम्मान देते हुए उसकी प्रतिष्ठा को बरकरार रखता है|

ऐसे ही एक दलित उदाहरणतः एक मोची अगर मोची का कार्य छोड़ के नया पेशा करता है तो कभी भी मोची के कार्य की बुराई नहीं करता|

लेकिन जब एक किसान (मैं जाट किसान का बेटा हूँ तो मैंने जाट किसानों के यहाँ तो खूब देखा है) के बेटे को किसानी छोड़ कोई और कारोबार करने या सीखने की कहा जाता है तो हमेशा खेती के कार्य की बुराई करते हुए, उसकी कमिया-खामियां दर्शाते हुए उसको छुड़वाने या छोड़ने के लिए प्रेरित किया जाता है|

किसी भी कार्य को करने से पहले उसकी पूजा करने को कहा जाता है| जो कार्य करते हो उसमें आस्था और सम्मान रखना सबसे जरूरी बात बताई जाती है| लेकिन किसानों का अपने कार्य के प्रति यह कैसा रवैय्या है कि किसान अन्नदाता जैसे कार्य को भी छोटा कहने लगता है| वजह साफ़ है बाकी सब कार्यों में चाहे वो पुजारी का हो, व्यापारी का हो, मजदूरी का हो, या फेरीवाले का हो; हर कोई अपने सामान-उत्पाद-वस्तु की अपने मुताबिक कीमत पाता है| यानी जिस कीमत पे चाहे उसपे सामान बेचता है, इसलिए कभी भी इन कार्यों में आपको लागत-बचत की शिकायत नहीं मिलती| जितना लगन और शिद्दत से करोगे उतनी कमाई पाओगे| जबकि किसानी की एक तो सदियों पुरानी समस्या यह कीमत निर्धारण रही है जो हमेशा से गैर-किसान करते आये हैं, दूसरा इसकी वजह से फिर किसान का स्वार्थी रवैय्या हो जाता है और इसी रवैय्ये की वजह से गाँव से शहरों को पलायन कर जाने वाले किसानों के बच्चे गाँव की तरफ वापिस तो मुड़ते ही नहीं हैं, साथ ही किसानी के उनके पुरखों के धंधे के पक्ष में भी नहीं बोल पाते हैं|

इससे होता यह है यह कि किसान के यहां से जो जनरेशन पढ़-लिख के इस काबिल बनी कि वो किसानी को ना सही कम से कम उसकी संस्कृति को तो शहरों में संभाले रखे, वो यह भी नहीं कर पाती है| क्योंकि उससे खेती से दूर होने की वजह स्वाभिमानी नहीं अपितु हीनकारी यानी हीन भावना वाली बताई जाती है| और इसी हीन भावना की वजह से किसान वर्ग आज भी झंझावतों में उलझा डोल रहा है|

किसान वर्ग को अपने बच्चों को खेती से बाहर निकलने की वजह बताने के तरीके बदलने होंगे, कृषि के कार्य की मर्यादा उनके आगे बनाये रखनी होगी| आखिर आप अन्नदाता का कार्य करते हो, वह तुच्छ कैसे बताया जा सकता है?

इस मुद्दे पर विस्तार से कभी फुरसत में लिखूंगा, फ़िलहाल इतना जान पाया हूँ कि किसान को यह अपनी औलादों से पेशे बदलवाने के तौर-तरीके बदल के, खेती की प्रतिष्ठा कायम रखनी होगी, और इसका सम्मान बनाये रखना होगा| हो सके तो किसान अब अपनी फसलों के मूल्य निर्धारण का अधिकार कैसे लेवें इसपे मंथन करने शुरू कर दें, जो कि इन सारी कार्य-संबंधी, संस्कृति के संकट संबंधी समस्याओं की जड़ है|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

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