Monday 20 July 2015

जाट अगर अपनी 'जाट थ्योरी ऑफ़ सोशल लाइफ एंड कंडक्ट' पे रहे तो जाट और दलित का कभी झगड़ा ना हो!


1) पूरे भारत में जहाँ कृषि-क्षेत्र में नौकर-मालिक की संस्कृति चलती है, वहीँ जाटलैंड पर ‘सीरी-साझी’ की संस्कृति चलती है। जाट को यह संस्कृति कोई पुराण-शास्त्र-ग्रन्थ नहीं अपितु उसकी खाप सोशल इंजीनियरिंग सिखाती है। तो जो जाट नौकर तक को ‘सीरी-साझी’ यानी पार्टनर कहने की संस्कृति पालता आया हो तो जब उसका एक दलित से झगड़ा (90% झगड़ों की वजह कारोबारी) होता है वो उसी जाट को एंटी-जाट (सारा नहीं) मीडिया और एनजीओ द्वारा रंग-भेद-नश्ल अथवा छूत-अछूत का धोतक कैसे और क्यों ठहरा दिया जाता है?

2) जाट बाहुल्य गाँवों में पूरे गाँव की 36 बिरादरी की बेटी-बहन-बुआ को अपनी बेटी-बहन-बुआ मानने की सभ्यता का सिद्धांत होना। निसंदेह यह शिक्षा भी किसी शास्त्र-ग्रन्थ-पुराण से नहीं आती, अपितु खाप सोशल इंजीनियरिंग थ्योरी देती है। तो अगर जाट के लिए दलित नीच या अछूत होता तो वो उसकी बेटी-बहन-बुआ को अपनी बेटी-बहन-बुआ मानने का सिद्धांत क्यों बनाता? जबकि जाट तो दलित की बेटी को देवदासी बनाने के देवालयों में रखने का धुरविरोधी रहा है और यही वजह है कि उत्तर भारत खासकर खापलैंड के मंदिरों में कभी देवदासी नहीं बैठी।

3) जो जाटों के सयाने आज भी इस परम्परा से दूर नहीं हुए हैं वो तो आज भी इसको निभाते हैं। परम्परा कहती है कि जब भी किसी गाँव में बारात जाएगी तो उस गाँव में बारात वाले गाँव की 36 बिरादरी की बेटी-बुआ-बहन की मान करके आएगी। मेरे दादा, मेरे पिता और खुद मैंने यह मानें की हैं। तो सोचने की बात है कि अगर जाट अपनी जाट थ्योरी से वर्ण-नश्ल-भेद करने वाला होता तो उसको इतनी दूर जा के भी अपने गाँव की 36 बिरादरी की बेटी-बहन-बुआ की मान करने की क्या जरूरत होती? वो अपनी या अधिक से अधिक अपनी बिरादरी तक भी तो इस परम्परा को सिमित रख सकता था?

4) सीरी-साझी को नेग से बोलने की मान्यता। नेग यानी गाँव की पीढ़ी के दर्जे के अनुसार सम्बोधन। यानी अगर कोई दलित सीरी गाँव के रिश्ते (नेग) में आपका दादा लगता है तो उसको दादा बोलना, चाचा-ताऊ लगता है तो चाचा-ताऊ बोलना, भाई या भतीजा लगता है तो नाम से बोलना। दादा-चाचा-ताऊ में अगर यानी सीरी भी और साझी भी दोनों हमउम्र हैं तो आपस में नाम ले के भी बोलने का विधान रहता है क्योंकि हमउम्र आपस में दोस्त भी होते हैं।

इस विधान पे तो मेरे घर का ही किस्सा रखते हुए चलूँगा। मेरे चाचा के लड़के में गधे वाले अढ़ाई (जवानी ) दिन आये-आये थे। वो ना घर में किसी को कुछ समझता था ना ही बाहर। एक बार मैं और वो खेतों में गए हुए थे। वहाँ उनका साझी (चमार रविदासी जाति से) जो रिश्ते में हमारे दादा लगते थे, काम कर रहे थे। तो चाचा के लड़के ने किसी कामवश साझी को दादा से सम्बोधन ना करने की बजाये उनके नाम से 'आ धीरे' सम्बोधन करके आवाज लगाई। गन्ने के खेत थे तो कुछ पता नहीं चल रहा था कि कौन किधर है। तो उसका आवाज लगाना हुआ और पीछे से किसी ने उसकी गुद्दी नीचे एक जड़ा। हमने पीछे मुड़ के देखा तो मेरे चाचा जी (उसके पिता जी) थे। चाचा जी की तरफ प्रश्नात्मक नजर से देखा ही था कि पूछने से पहले ही उसको चपाट लगाने का कारण बताते हुए उसको हड़का के बोले कि 'धीरा, के लागै सै तेरा? तो भाई ने जवाब दिया 'दादा'? तो चाचा जी ने एक और जड़ते हुए गुस्से से कहा तो फिर नाम ले के क्यों बोला? आजतक मैं खुद जिसको 'चाचा' कह के बोलता हूँ, तुम उसको ऐसे बोलोगे? इतने में सामने से दादा धीरा भी आ गए, जो चाचा जी को भाई की नादानी समझते हुए उसको ना मारने की कहने लगे। तो भाई ने आगे से ऐसी गलती ना दोहराने की कहते हुए चाचा जी और दादा जी दोनों से माफ़ी मांगी।

तो ऐसे में सवाल उठता है कि अगर किसी अ. ब. स. कारणवश दलित से जाट का झगड़ा होता है या जाटलैंड पर किसी गाँव में किसी दलित के लिए अलग कुआँ बना या बनाया गया तो उसकी मूल जड़ में कौनसी विचारधारा रही?

निसंदेह पुराण-शास्त्र-ग्रंथों की समाज को वर्ण और जातिय आधार पर बांटनें की धारणा रही। और जब-जब जाट इसके प्रभाव में आया है वो नश्लवादी हुआ है। आज भी बहुतेरे ऐसे जाट हैं जो इन नश्लवादी धारणाओं से अपने को अलग रखते हैं और खेत में अपने दलित सीरी-साझी के साथ एक ही बर्तन में खाते भी हैं और पानी भी पीते हैं।

मुझे विश्वास है कि सिर्फ जाट के यहां ही नहीं खापलैंड पर बसने वाली हर किसान जाति के यहां जैसे कि 'अजगर' यानी अहीर-जाट-राजपूत-गुज्जर' रोड, सैनी आदि सबके यहां कुछ-कुछ ऐसी ही रीत मिलेंगी।

तो ऐसे में भेद समझने का यह है कि जिन पुराण-शास्त्र-ग्रंथों के प्रभाव में आ जाट दलितों को अपनी जाट थ्योरी ऑफ़ सोशल लाइफ एंड कंडक्ट की लाइन से हटकर ट्रीट करते हैं वो फिर इन्हीं पुराण-शास्त्र-ग्रंथों की मीडिया व् विभिन्न एंटी-जाट एनजीओ में बैठी औलादों के हत्थे दलित विरोधी होने के नाम से कैसे चढ़ जाते हैं? और सिर्फ जाट-दलित के ही क्यों चढ़ते हैं और हद से ज्यादा उछाले जाते हैं, अन्य किसानी जातियों से दलित के हुए झगड़े इतनी हाईलाइट की लाइमलाइट क्यों नहीं पाते? इसका मतलब यह लोग यह मानते हैं कि क्योंकि इन ऊपरलिखित मान्यताओं का रचनाकार व् संरक्षक जाट है, इसलिए सिर्फ जाट-दलित के मामले ही उछालो या फिर कोई और वजह भी हो सकती है? ऐसी औलादों को चाहिए तो ऐसे जाटों की पीठ थपथपानी या कम से कम चुप रहना, क्योंकि उनके लिए तो ऐसे जाट उनकी लिखी पुस्तकों की बातों को साकार कर रहे होते हैं, है कि नहीं?
और जब यह औलादें ऐसी घटनाओं-वारदातों का अपनी रिपोर्टों-बाइटों में अवलोकन कर रहे होते हैं तो यह कभी नहीं कहते कि जिन शास्त्र-ग्रन्थ-पुराणों की थ्योरी से पनपी मानसिकता के चलते यह नौबत आई उनको या तो एडिट करवाया जावे या उनको समाज से हटाया जावे? अपितु झगड़ा हुआ होगा दो-चार जाटों का या की वजह से, उसको मत्थे पे जड़ के दिखाएंगे पूरी जाट बिरादरी के। है ना अजब तमाशा इनकी ही लिखी बातों को मानने अथवा उनके प्रभाव में रहने का?

एम.एन.सी. कॉर्पोरेट वर्क कल्चर में काम करने वाले जाट और जाटों के बच्चे यहाँ गौर फरमाएं कि पाश्चात्य सभ्यता के वर्किंग कल्चर के अनुसार बॉस को सर या मैडम कहके बुलाने की बजाये मिस्टर, मिस या मिसेज के आगे नाम लगा के या सीधा नाम या उपनाम से सम्बोधन करने का जो चलन है वो आपके अपने खेतों के ' सीरी-साझी' वर्किंग कल्चर से कितना मेल खाता है। यानि मालिक को मालिक (भारतीय कॉर्पोरेट की भाषा सर/मैडम) कहने जरूरत नहीं वरन उसको सीरी समझो और और मालिक भी आपको नौकर नहीं कहेगा, अपितु साझी यानि पार्टनर समझ के काम लेगा या देगा। एम.बी.ए. वगैरह के एच.आर. (Human Resource) कोर्सों में यही सब तो सिखाया जाता है जो कि आप खेतों की पृष्ठभूमि से आते हुए वहीँ से सीख के आये हुए होते हो, सिर्फ अंतर जो होता है वो होता है भाषा का। पीछे आप हरयाणवी या हिंदी में बोलते रहे हैं यहां आपको अंग्रेजी बोलना है, बाकी वर्किंग एथिक्स तो सेम रही। हालाँकि कई भारतीय मूल की कम्पनियों में तो आज भी सर, मैडम का कल्चर चलता है। क्यों और किस वजह से चलता होगा, वो आप समझ सकते हैं।

तो दोस्तों, जाट को दलित विरोधी दर्शाने का षड्यंत्री मकड़जाल यही भेद है, जिसको पकड़ में आ गया समझो पार नहीं तो खाते रहो हिचकोले भींत (पुराण-शास्त्र-ग्रंथों की वर्णीय और जातिवाद सोच) बीच और खोद (इसी सोच वालों की एंटी जाट मीडिया और एनजीओ) बीच। और जब तक जाट इस चीज को समझ के इनसे अँधा हो चिपकना नहीं छोड़ेगा, यह ऐसे ही अपने जाल में घेर-घेर के आपकी शुद्ध लोकतान्त्रिक मानवता की थ्योरी को भी ढंकते रहेंगे और आपपे जहर उगल आपकी सामाजिक छवि और पहुँच को छोटा करने की और अग्रसर रहेंगे। सीधी सी बात है भाई, किसी को सर पे चढ़ने का अवसर दोगे या चढ़ाओगे तो वो तो मूतेगा भी और कूटेगा भी।

चलते-चलते यही कहूँगा कि अब तक जिन थ्यूरियों और मान्यताओं को हमने डॉक्यूमेंट नहीं किया, अब उनपे किताबें लिख के विवेचना और प्रचार करने का वक्त आ गया है, वरना जाट सभ्यता और थ्योरी को ढांपने-ढांकने हेतु, यह गिद्ध-भेड़िये यूँ ही कोहराम मचाते रहेंगे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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